अहसास .......
ये बारिश की बूँदें,
ये कड़कती बिजली,
ये हवा का झोका,
ये झूमती शाखाएँ,
ऐसी है निशा जो मन को भाए
ये कैसा है पल,
ये कैसी है हलचल,
ये कैसी है तूफानी रात,
हो रही है बरसात,
ऐसी है निशा जो मन को भाए
विचित्र है यह क्षण ,
पुलकित है यह मन,
कोमल सा है एहसास
यह पल है कुछ ख़ास,
ऐसी है निशा जो ख्वाब दे जाए
ये ओस की बूंदे ,
ये सूरज की किरणे ,
ये चहचहाती चिडियां,
ये भोर का नज़ारा,
एसा है प्रभात जो मन लुभाए
यह खुशनुमा एहसास,
यह जीवन का आगाज,
यह पल है कुछ ख़ास,
मन में है अटूट विश्वास ,
अजीब है जीवन का खेल जो मन को भाए
p.s : wrote it yesterday when it was raining hard.... rain brings smile to everyone's face.
ये कड़कती बिजली,
ये हवा का झोका,
ये झूमती शाखाएँ,
ऐसी है निशा जो मन को भाए
ये कैसा है पल,
ये कैसी है हलचल,
ये कैसी है तूफानी रात,
हो रही है बरसात,
ऐसी है निशा जो मन को भाए
विचित्र है यह क्षण ,
पुलकित है यह मन,
कोमल सा है एहसास
यह पल है कुछ ख़ास,
ऐसी है निशा जो ख्वाब दे जाए
ये ओस की बूंदे ,
ये सूरज की किरणे ,
ये चहचहाती चिडियां,
ये भोर का नज़ारा,
एसा है प्रभात जो मन लुभाए
यह खुशनुमा एहसास,
यह जीवन का आगाज,
यह पल है कुछ ख़ास,
मन में है अटूट विश्वास ,
अजीब है जीवन का खेल जो मन को भाए
p.s : wrote it yesterday when it was raining hard.... rain brings smile to everyone's face.
Comments
@ swati:thanku ji,kavi nai-kavitri. golden vulture is ankit minglani.
@ cj: ab ye to golden vulture hi bata sakta hai ki kya baat ho sakti hai... thnks u liked it. kal padhte padhte aadi rat ko barish shuru ho gayi, and somehow it was composed in d wee hours.nisha means raat( if m rite, wht i belive)
u ll get success.. best of luck ..
thanks
let me know there ...if is thr any latest :-) thnx
बदला था रंग समय का
थी प्रकृति भरी करूणा में
कर उपचय मेघ निश्चय का।।
वे विविध रूप धारण कर
नभ–तल में घूम रहे थे
गिरि के ऊँचे शिखरों को
गौरव से चूम रहे थे।।
वे कभी स्वयं नग सम बन
थे अद्भुत दृश्य दिखाते
कर कभी दुंदभी–वादन
चपला को रहे नचाते।।
वे पहन कभी नीलाम्बर
थे बड़े मुग्ध कर बनते
मुक्तावलि बलित अघट में
अनुपम बितान थे तनते।।
बहुश: –खन्डों में बँटकर
चलते फिरते दिखलाते
वे कभी नभ पयोनिधि के
थे विपुल पोत बन पाते।।
वे रंग बिरंगे रवि की
किरणों से थे बन जाते
वे कभी प्रकृति को विलसित
नीली साड़ियां पिन्हाते।।
वे पवन तुरंगम पर चढ़
थे दूनी–दौड़ लगाते
वे कभी धूप छाया के
थे छविमय–दृश्य दिखाते।।
घन कभी घेर दिन मणि को
थे इतनी घनता पाते
जो द्युति–विहीन कर¸ दिन को
थे अमा–समान बनाते।।
रचनाकार: अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध