अहसास .......

ये बारिश की बूँदें,
ये कड़कती बिजली,
ये हवा का झोका,
ये झूमती शाखाएँ,
ऐसी है निशा जो मन को भाए

ये कैसा है पल,
ये कैसी है हलचल,
ये कैसी है तूफानी रात,
हो रही है बरसात,
ऐसी है निशा जो मन को भाए

विचित्र है यह क्षण ,
पुलकित है यह मन,
कोमल सा है एहसास
यह पल है कुछ ख़ास,
ऐसी है निशा जो ख्वाब दे जाए

ये ओस की बूंदे ,
ये सूरज की किरणे ,
ये चहचहाती चिडियां,
ये भोर का नज़ारा,
एसा है प्रभात जो मन लुभाए

यह खुशनुमा एहसास,
यह जीवन का आगाज,
यह पल है कुछ ख़ास,
मन में है अटूट विश्वास ,
अजीब है जीवन का खेल जो मन को भाए

p.s : wrote it yesterday when it was raining hard.... rain brings smile to everyone's face.

Comments

ankitminglani said…
kuch likhna ka mann nahi kar raha :) ..
Swati Jain said…
wow..tu mba chod kavi ban ja yar..mast composition hoti h teri..n who is dz golden vulture
actually this poem has been written so beautifully, that golden vulture is speechless...i cn understand... btw very nice poem...but i don't know the meaning of nisha..:)
Siddhi Agrawal said…
@ ankit: man nai hone ke bawjood u had put comment?

@ swati:thanku ji,kavi nai-kavitri. golden vulture is ankit minglani.


@ cj: ab ye to golden vulture hi bata sakta hai ki kya baat ho sakti hai... thnks u liked it. kal padhte padhte aadi rat ko barish shuru ho gayi, and somehow it was composed in d wee hours.nisha means raat( if m rite, wht i belive)
Swati Jain said…
yup u r ryt siddhi.. nisha means raat only..
Anonymous said…
i hv read ur poem .. its really nice .... i can say u r a very good in deep thoughts... its reallly fantastic yaaar .. keep it up ..m sure .. u can make batter ..
u ll get success.. best of luck ..
thanks
Anonymous said…
gud luck..its wonderfull
Anonymous said…
This comment has been removed by the author.
Anonymous said…
This comment has been removed by the author.
Anonymous said…
i saw ur profile on orkut ..from sehrawatarun@yahoo.com
let me know there ...if is thr any latest :-) thnx
Siddhi Agrawal said…
@ anil: thnks 4 visiting my blog,u r welcome
Cinephile said…
बादल थे नभ में छाये

बदला था रंग समय का

थी प्रकृति भरी करूणा में

कर उपचय मेघ निश्चय का।।


वे विविध रूप धारण कर

नभ–तल में घूम रहे थे

गिरि के ऊँचे शिखरों को

गौरव से चूम रहे थे।।


वे कभी स्वयं नग सम बन

थे अद्भुत दृश्य दिखाते

कर कभी दुंदभी–वादन

चपला को रहे नचाते।।


वे पहन कभी नीलाम्बर

थे बड़े मुग्ध कर बनते

मुक्तावलि बलित अघट में

अनुपम बितान थे तनते।।


बहुश: –खन्डों में बँटकर

चलते फिरते दिखलाते

वे कभी नभ पयोनिधि के

थे विपुल पोत बन पाते।।


वे रंग बिरंगे रवि की

किरणों से थे बन जाते

वे कभी प्रकृति को विलसित

नीली साड़ियां पिन्हाते।।


वे पवन तुरंगम पर चढ़

थे दूनी–दौड़ लगाते

वे कभी धूप छाया के

थे छविमय–दृश्य दिखाते।।


घन कभी घेर दिन मणि को

थे इतनी घनता पाते

जो द्युति–विहीन कर¸ दिन को

थे अमा–समान बनाते।।

रचनाकार: अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

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